
मध्यकाल की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति
मध्यकाल तक की जीवन पद्धति में मनुष्य आस्था आधारित निर्णय करता था। सही और गलत का निर्णय धार्मिक पुस्तकों आदि के द्वारा होता था। इस दौर में यूरोप में राजनीति के दो स्वरूप उभरकर आये चर्च
1. कभी-कभी राजा के ऊपर चर्च और कुलीन वर्ग का अंकुश होता था। 15वीं शताब्दी तक यूरोप की दशा सामान्यतः ऐसी ही थी।
2. 16वीं सदी और कुछ देशों में 15वीं सदी में भी यूरोप में निरंकुश राजतंत्र आ गया, अर्थात् उसने धर्म की राजनीतिक भूमिका को समाप्त कर दिया और कुलीन वर्ग अर्थात् सामंती समाज के राजनीतिक प्रभुत्व को भी तोड़ दिया। इन दोनों ही व्यवस्थाओं में राजा चाहे कमजोर रहा हो या ताकतवर इसमें जनता की भूमिका नगण्य थी। राजा अपने सामर्थ्य के आधार पर अपने राज्य की सीमा तय करते थे और इसी सामर्थ्य के आधार पर शासन की व्यवस्था भी बनाते थे। आधुनिक काल में जिस विचार ने मनुष्य को प्रवेश दिलाया, उसकी पहली मान्यता यह थी कि मनुष्य बुद्धिमान होता
है। इसलिए वह सही गलत का निर्णय स्वयं कर सकता है। इस आधार पर मनुष्य जब राजनीतिक विषय पर विमर्श करने लगा तो वह राष्ट्रवाद और उदारवाद की ओर मुड़ा। अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रान्तियों ने इसी आदर्श को आगे बढ़ाया।
सामाजिक
सामाजिक स्तर पर देखें तो समाज के अंदर चर्च और भूस्वामित्व एवं राजनीति से जुड़े हुए कुलीन वर्ग के लोगों की विशेष प्रतिष्ठा थी। वो कर देने से मुक्त थे । सरकारी पदों पर उन्हीं की नियुक्तियां होती थीं। उन्हें सामान्य वर्ग की तुलना में कम कठोर सजा मिलती थी। इसी स्थिति को विशेषाधिकार कहते हैं। 15-16वीं शताब्दी से यूरोप में वाणिज्यिक क्रान्ति की शुरूआत हुई। इसके कारण व्यापारियों का वर्ग धनी होता गया और नगरीय जीवन का विकास हुआ। यह वर्ग विशेषाधिकार के कारण वंचित था और इसलिए असंतुष्ट था। आम आदमी के बीच सबसे बड़ी संख्या किसानों की थी। वो लोग भी विशेषाधिकार की व्यवस्था से असंतुष्ट थे क्योंकि उन्हें चर्च और कुलीन के हिस्से का भी कर चुकाना होता था।
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